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स्वामी दयानंद सरस्वती मानवीय मूल्यों के सांस्कृतिक नेता और आध्यात्मिक गुरु थे। आज भी उनकी पाखंड खंडिनी ध्वजा लहरा रही है : डा.संजय पंकज

–दयानंद के चित्र पर माल्यार्पण करते हुए संजय पंकज भाव-संवेदना से भर गए और और भारत के सच्चे सपूत को पूरी आस्था से स्मरण प्रणाम किया
मसौढ़ी,पटना (वरुण कुमार)। “तत्कालीन भारतीय राजनीति तथा संस्कृति की अनन्य परिघटना थे स्वामी दयानंद सरस्वती ! वह एक महान विचारक होने के साथ – साथ संस्कृति-उद्धारक भी थे । उनमें भारत माता के प्रति भक्ति ऐसी थी  कि उन्हें गुलामी की जंजीरों से मुक्त करने के लिए वे गांव – गांव , शहर – शहर जनजागरण का बिगुल  फूंकते रहे , अलख जगाते रहे और एक ऐसा सूर्यपिंड बनकर उभरे , जिनसे नाना साहब , अजीमुल्ला खाँ , तात्या टोपे , बाबू कुँवर सिंह, सुभाष चंद्र बोस, सावरकर, लाला लाजपत राय, सरदार वल्लभ भाई पटेल, भगत सिंह जैसे दर्जनों क्रांतिकारियों ने उनसे ऊर्जा व मार्ग दर्शन ग्रहण कर , अंग्रेजों को मार भगाने का संकल्प लिया और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में निर्णायक भूमिका निभाई । उनका पराक्रम ऐसा था कि सांस्कृतिक पुनरुद्धार के क्रम में काशी के पाखंडी पंडितों की खबर लेते समय उनके कई गुंडों के दाँत एक साथ खट्टे कर दिये और दयालुता ऐसी कि दूध में कांच और संखिया मिलाकर  जान मारने वाले रसोइया जगन्नाथ को भी माफ कर दिया ! ऐसी दया , करुणा और प्रेम की प्रतिमूर्ति , संस्कृति के पुनरुद्धारक महर्षि दयानंद सरस्वती ही हो सकते थे।”
ये बातें प्राथमिक शिक्षक शिक्षा महाविद्यालय (पीटीईसी) मसौढ़ी, पटना में आयोजित महर्षि दयानंद सरस्वती की 200वीं जयंती के अवसर पर आयोजित समारोह में प्रशिक्षु छात्र एवं गया जिला से आए हुए सैकड़ों शिक्षकों को संबोधित करते हुए प्रख्यात कवि साहित्यकार, पत्रकार, ‘बेला’ पत्रिका के संपादक  डॉ संजय पंकज ने कही।
आगे उन्होंने बताया कि वह भारतीय  संस्कृति के पुनरुद्धारक और पाखंडियों के पाखंड को चूर चूर करने वाले महान योद्धा थे । उनके द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ जनजागरण का ही फल था कि संपूर्ण भारत ने प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया । यही कारण है कि भूतपूर्व कांग्रेस अध्यक्ष पट्टाभि सीतारमैया ने उन्हें ‘राष्ट्र पितामह’ बताया।
डॉ संजय पंकज ने अपने धाराप्रवाह ओजस्वी भाषण में विस्तार से बोलते हुए कहा कि दयानंद सरस्वती हिंदी भाषा को राष्ट्रीय अस्मिता के रूप में देखते और स्वीकारते थे। उनकी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश केवल विभिन्न धर्मों की रूढ़ियों का खंडन और प्रतिवाद भर नहीं है बल्कि वेद को प्रमाणिक मानते हुए शाश्वत सत्य का भी निरूपण है। दयानंद सरस्वती ज्ञानसम्मत विचार के आग्रही थे।
उन्होंने स्त्री शिक्षा और सामाजिक समरसता के लिए भी आवाज उठाई और काम किया। दलितों को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए उन्होंने संघर्ष किया तथा बड़ी-बड़ी शक्तियों से भी निडरता के साथ लोहा लिया। वह बड़े ही निर्भीक और समय के पाबंद साधक थे। वे मानते थे कि भारत भारतीयों का है, इस पर किसी की अधीनता उन्हें स्वीकार्य नहीं है। सबको स्वाभिमान के साथ जीने का अधिकार है। जनेऊ का संस्कार हर स्त्री के लिए भी अनिवार्य हो और बिना जातीय भेदभाव के इसमें सब को सम्मिलित किया जाए। उनकी पाखंड खंडिनी ध्वजा आज भी लहरा रही है।
अतिथि वक्ता के प्रति स्वागत संबोधन में महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ उपेन्द्र कुमार ने कहा कि यह महाविद्यालय का सौभाग्य है कि राष्ट्रीय स्तर के कवि साहित्यकार डॉ संजय पंकज जी ने अपना बहुमूल्य समय निकालकर यहां पधारने का कष्ट किया है। महाविद्यालय डा संजय का हार्दिक अभिनन्दन करता है और अपेक्षा रखता है कि आगे भी ऐसे ही अपना बहुमूल्य समय देने की कृपा करते रहेंगे जिससे यहां के प्रशिक्षु छात्र और शिक्षक अपने जीवन के कर्तव्य पथ पर आरूढ़ होकर अपना सर्वश्रेष्ठ शिक्षा और समाज को दे सकें।
विषय प्रवेश के क्रम में महाविद्यालय के शैक्षणिक प्रमुख एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रभारी डा. सुधांशु कुमार ने बताया कि जब संपूर्ण विश्व को अपने ज्ञान के आलोक से आलोकित करनेवाले विश्वगुरु भारत भूमि पर पाप , पाखंड , अनाचार , अशिक्षा , व्यभिचार का अंधकार गहराने लगा तभी , उसका सीना चीरता हुआ प्राची में जो सूर्य उदित हुआ , वह महर्षि दयानंद सरस्वती ही थे ।  राम , कृष्ण और बुद्ध के बाद वह दयानंद ही थे जिन्होंने ‘दधीचि’ की तरह भारत माता को आतताइयों के चंगुल से मुक्त करने हेतू अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया । वह मात्र संस्कृति के पुनरुद्धारक ही नहीं थे अपितु स्वतंत्रता आंदोलन के प्रस्थान बिंदु भी थे।’स्वराज’ का नारा सर्वप्रथम उन्होंने ही दिया जिसे आगे चलकर बालगंगाधर तिलक ने प्रबलता के साथ उसे स्वर दिया ।  स्वामी दयानंद सरस्वती के ‘सत्यार्थ प्रकाश’ भारतीय सनातन संस्कृति का महाभाष्य है ।

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