मुजफ्फरपुर (जनमन भारत संवाददाता)। जैसे जल के बगैर मछली नहीं रह सकती। माता के बगैर बालक नहीं रह सकता। भोजन के बगैर अन्नमयी शरीर नहीं चल सकता। ऐसे ही शिष्य का गुरु के बगैर चलना मुश्किल ही नहीं बल्कि असंभव है। गुरु का जीवन में आना सिर्फ इतना ही नहीं है कि आप उनको देखते हो। आप उनको सुनते हो।आप उनको मिलते हो। आप उनको कभी-कभी कुछ धन, कुछ वस्तुएं अर्पित कर देते हो। गुरु का मिलना तब होता है जब गुरु का ज्ञान तुम्हारा ज्ञान हो जाए। गुरु का वैराग्य तुम्हारा वैराग्य हो जाए।
आचार्य सुजीत शास्त्री (मिठ्ठू बाबा) ने बताया कि अगर ज्ञान सिर्फ कानों तक रह गया और मन में भाव कभी ज्यादा आ गया गुरु के लिए, कभी कम हो गया तो भी बात अधूरी है।
शिष्य का गुरु से आध्यात्मिक रिश्ता होता है ,ना कि सामाजिक-आर्थिक।
इसलिए बाहर की परिस्थितियां चाहे अनुकूल हो या प्रतिकूल, मन कमर कस के अपने अज्ञान,मोह और अविद्या को दूर करने में भरसक प्रयास में लगे रहें, जैसे माता पिता का स्वरूप,स्वभाव उसके बच्चों में आ जाता है। उसकी शक्ल मां बाप से मिलने लग जाती है। ऐसे ही गुरु और शिष्य में शरीर का संबंध नहीं है। इसे हम बिंदी- बिंद संबंध नहीं कहते। बिंद अर्थात पिता से उत्पन्न। गुरु के साथ नाद का संबंध होता है। नाद अर्थात ध्वनि। गुरु के मुख से निकले शब्दों से, गुरु के मुख से निकली उस वाणी से, उस वाणी से सुने हुए ज्ञान से शिष्य का जीवन बदलता है।
मिट्ठू बाबा ने कहा कि सच तो यह है कि एक जन्म मां देती है अपने गर्भ से, और दूसरा जन्म गुरु देता है। इसीलिए गुरु से जन्मे हुए को द्विज कहते हैं। जिनका दो बार जन्म हो चुका है। अज्ञानता से निकलकर जो ज्ञान में पहुंचा दिया जाए, उस शिष्य को हम गुरु का पुत्र या गुरु की संतान कहते हैं। इसलिए शिष्य गुरु की नादी संतान होता हैै। शब्द से उत्पन्न संतान होता है ।जैसे जन्म देने वाले पिता के लक्षण उसके बच्चे में दिखाई देते हैं, अरे ऐसे ही शिष्य के अंदर उसके गुरु के तमाम लक्षण होने ही चाहिए।