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संयुक्त परिवार का अर्थ होता है ऐसा परिवार जिसमें कम से कम तीन पीढ़ियां एक साथ रहतीं हैं: उदय नारायण सिंह

मुजफ्फरपुर (जनमन भारत संवाददाता)। हमारा देश भारत विश्व में इसलिए ख्यात है कि यह संस्कृति और संस्कार का संरक्षक  तथा धर्म का संवाहक रहा है। महाभारत के आदि पर्व की कथा से ज्ञात होता है कि विवाह और परिवार की अवधारणा उद्दालक पुत्र श्वेतकेतु की देन है। उनसे पहले के लोग स्वेच्छाचारी और बंधन मुक्त थे। सर्वप्रथम श्वेतकेतु ने ही इसे”स्मृति/संहिता”में बांध कर विवाह के नाम से अलंकृत किया। तत्पश्चात परिवार की अवधारणा सामने आईं। उक्त बातें उदय नारायण सिंह ने कही।
       उन्होंने कहा कि संयुक्त परिवार का अर्थ होता है ऐसा परिवार जिसमें कम से कम तीन पीढ़ियां एक साथ रहतीं हैं। इसमें दादा-दादी, माता-पिता और चाचा-चाची आदि आते हैं। यही कारण है कि समाज शास्त्री परिवार को समूह और संस्था दोनों मानते हैं। समाज शास्त्रियों की दृष्टि में परिवार व्यक्ति की सिर्फ जरूरत नहीं बल्कि बुनियादी आवश्यकता है।
      साथ ही कहा कि भारत में आदि-काल से बच्चे एवं वृद्धों के हित परिवार एक पावन आश्रय स्थल रहा है। परिवार अपने परिजनों को भावनात्मक रूप से जोड़ता है। संयुक्त परिवार में खासकर बच्चे और बुजुर्गों की सुरक्षा, सम्मान और आत्मीयता संरक्षित रहतीं हैं। संयुक्त परिवार में निवास, पूंजी और उत्तरदायित्व संयुक्त होने के कारण परिवार की सुरक्षा एवं अभिवृद्धि सुनिश्चित रहतीं हैं। इतना ही नहीं संयुक्त परिवार में संबंधों को ज्यादा तवज्जो दी जाती है। संयुक्त परिवार के लोगों की सोच अत्यधिक उदार और सकारात्मक होती हैं। संयुक्त परिवार में बुजुर्गों के रहने के कारण बच्चे में अच्छे संस्कार प्रसवित होते हैं। दूसरी ओर बच्चे के उज्जवल भविष्य हेतु जितनी आवश्यक और जरूरी बातें हैं, वे सभी बातें उन्हें अनायास खेल-खेल में बिना प्रयास मिल जाती हैं। इस हेतु उन्हें किसी गुरु के पास जाना नहीं पड़ता। संयुक्त परिवार में रहने वाला व्यक्ति विचार की दृष्टि से ज्यादा सामाजिक, सुसंस्कृत, सभ्य, नैतिक और धार्मिक होते हैं। उनकी सोच ज्यादा उदार और सार्वभौमिक होती है। संयुक्त परिवार के बच्चे बिना पढ़े जीवनोपयोगी बहुत सारी बातें जान, समझ और बूझ जातें हैं। इस हेतु उन्हें किसी दूसरे गुरु की पाठशाला में जाने की कोई जरूरत नहीं होती है ; क्योंकि संयुक्त परिवार के बुजुर्ग के पास अनुभव का पाठशाला होता है, जिसमें बच्चे बिना प्रयास जीवनोपयोगी वह सब कुछ पढ़ लेते हैं जो दूसरे पाठशाला के गुरु के लिए सर्वथा अबूझ है। बुजुर्गो का प्रेम, प्यार, स्नेह, दुलार,दुआ और आशीष कितना असरदार होता है, इससे संबंधित एक शोध-पत्र का अंश यहां सादर उद्धृत है। बात जर्मनी के ख्याति लब्ध बाल चिकित्सक डाक्टर फिट्ज टालबोट से संबंधित है। डाक्टर फिट्ज की ख्याति बाल चिकित्सक के रूप में दूर-दूर तक फैली हुई थी। उन्हें बच्चे का भगवान कहा जाता था। उनकेे क्लिनिक में जब बीमार बच्चे दवा से ठीक नहीं होते थे,तब वे अपने क्लिनिक की सबसे बुजुर्ग नर्स के हवाले बच्चे को कर दिया करते थे।वह वृद्धा नर्स उस बच्चे को दादी,नानी जैसा प्यार, दुलार, प्रेम और स्नेह देती थी। उसके प्यार, दुलार, प्रेम और स्नेह में ऐसा जादू था कि बच्चे दो-चार दिनों में ठीक होकर घर लौट जाते थे। ये चमत्कार हैं दादा-दादी,नाना-नानी और बुजुर्गों के पावन प्यार, प्रेम,दुलार और स्नेह में।यह शोध-पत्र साबित करता है कि परिवार के लिए बुजुर्गों की कितनी आवश्यकता है।इतना ही नहीं ,शोध से यह भी पता चला है कि संयुक्त परिवार के बच्चे /व्यक्ति अवसादग्रस्त कम होते हैं वनिस्पत एकल परिवार के।
     वही संयुक्त परिवार की सबसे बड़ी खासियत यह है कि संयुक्त परिवार में हिमालय की तरह दिखने वाली परेशानियां भी पलक झपकते धूल की मानिंद उड़ जाती है। दूसरी तरफ एकल परिवार के लोग इन क्षणों में अतिशय पीड़ा, वेदना, दुःख, चिंता एवं तनाव के कारण टूट जाते हैं, बिखर जाते हैं और अवसाद के शिकार हो जाते हैं। ऐसे बुरे वक्त में उन्हें भी संयुक्त परिवार की याद अवश्य आती है–“पर अब पछताबे होत क्या जब चिड़ियां चुक गई खेत।”
इस तरह आज की इस अंधी दौर और उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण संयुक्त परिवार का टूटना निसंदेह दुर्भाग्यपूर्ण है।

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